दुःख का मूल कारण क्या है |संसार में मनुष्य दुखी क्यों हैं
dukh ka mul karan
आजकल जिससे भी मिलो वह केवल अपने दुख की बात करता है। कोई अपने आर्थिक दुख की बात करता है, कोई अपने परिवारिक दुख की तो कोई अपने शारीरिक दुख की। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा मनुष्य होगा जिससे कोई दुख ना हो। खैर हमारे जीवन में सुख-दुख तो आते जाते ही रहते हैं परंतु मजे की बात यह है कि हम अपने दुख के लिए कभी ईश्वर को, कभी किस्मत को, तो कभी दूसरों को दोषी ठहराते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हर मनुष्य अपने दुख का निर्माता स्वयं है। हर मनुष्य अपना दुख स्वयं उत्पन्न करता है। लेकिन इस बात को कोई मानना नहीं चाहता। इसलिए इस आर्टिकल में हम आपको खुद के वास्तविक अनुभव और मनोवज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर बताएंगे कि हमारे दुख का मूल कारण क्या है।
जब मैं पहली बार इस दुनिया में आया था। तब मैं बहुत खुश था। इतनी खूबसूरत दुनिया को देखकर। कितना मनोहर दृश्य था। हंसते मुस्कुराते फुल, हवा में झुमते पेड़-पौधे, गाते गुनगुनाते चिड़िया का शोर और इतने सुंदर-सुंदर लोग। मुझे बहुत अच्छा लगा इस दुनिया में आकर। मैंने मन ही मन ईश्वर का शुक्रिया अदा किया। इतनी खूबसूरत दुनिया बनाने के लिए।
परंतु धीरे-धीरे जब मैं कुछ बड़ा हुआ और थोड़ी समझ हुई तो मैंने ये नोटिस किया कि पता नही क्यों मनुष्य अपने जीवन में खुश नहीं हैं। मैंने देखा, कुछ लोग चिंता में डूबे हुए हुए थे। कुछ लोग गम के मारे लग रहे थे। कुछ लोग दुख में आंसू बहाते हुए दिखाई दिए। मैंने कुछ लोगों को ये भी कहते हुए सुना कि दुनिया में केवल दुःख ही दुःख है। कुछ लोग तो ईश्वर को कोस भी रहे थे कि ईश्वर ने उनकी जिंदगी को दुखों से भर दिया है। उनकी बातें सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा कि ईश्वर भला ऐसे कैसे कर सकता है।
मैंने तो सुना था कि ईश्वर मंगलकर्ता, दुखहर्ता, कृपानिधान, उद्धारकर्ता और दया के सागर हैं। फिर इतना सुंदर मनुष्य बना कर उन्हें इतना पीड़ा, इतना दुःख देना। यह तो कोई दया की बात नहीं हुई। मैंने तो सुना था कि ईश्वर बड़े महान और महाज्ञानी है। फिर इतना सुन्दर संसार बनाकर उसे दुखों से भर देना, यह तो कोई बुद्धिमानी की बात नहीं हुई। लोगों का दुख देखकर मैं हमेशा यही बातें सोचा करता था। तभी अचानक एक दिन सपने में ईश्वर मुझे मिल गए। मैंने ईश्वर से शिकायत की उनसे पूछा- कि आपने इतनी सुन्दर दुनिया बनाई है, मनुष्यों को इतना शानदार जीवन दिया है। फिर आप इन बेचारे मनुष्यों को इतना दुख क्यों दे रहे है।
ईश्वर चौंकते हुए बोले- तुमसे किसने कहा कि मनुष्य को मैं दुख देता हूं। यह बात तो सरासर झूठ है। किसने कहा, संसार के सब लोग तो आपको ही दोष दे रहे हैं। मैंने भी अपनी बात पर जोर देते हुए कहा। ईश्वर ने मुस्कुराते हुए कहा- तुम अभी बच्चे हो, तुमने अभी इन मनुष्यों को ठीक से समझा नही है। अपनी हर गलती के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं। जाओ अभी संसार से कुछ सीखों, जीवन को गहराई से समझो। धीरे-धीरे तुम्हें सब-कुछ समझ में आ जाएगा।
तभी से मैंने दुनिया से सीखना शुरू कर दिया, जीवन को समझना शुरू कर दिया। क्योंकि लोगों का दुःख देखकर मुझे भी दुख होता था। इसलिए मुझे किसी भी हाल में इस प्रश्न का उत्तर ढुंढना था कि मनुष्य के जीवन में इतना दुख क्यों है आखिर मनुष्य इतना दुखी क्यों हैं। मैंने इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए अपने दुखों को भी गहराई से विश्लेषण किया। अपने आसपास के दूसरे मनुष्य के दुखों पर भी काफी रिसर्च किया। और आज जब मैं जीवन को काफी हद तक समझ गया हूं तो मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया है। अब मैं जान गया हूं कि जीवन में दुःख नाम की कोई चीज नहीं है। जीवन तो बहुत ही शानदार घटना है। दुःख तो मनुष्य अपने लिए स्वयं पैदा करता हैं।
दोस्तों मैं जानता हूं कि आपलोग इस बात पर यकीन नहीं करेंगे क्योंकि कुछ सालों पहले मैं भी आपकी तरह ही सोचता था। आपकी तरह मैं भी सोचता था कि मेरे जीवन में केवल दुःख ही दुःख है। कभी गरीबी का दुख, कभी दिल के टूटने का दुख, कभी असफलता का दुख तो कभी किसी अपनों को खोने का दुख। परंतु कितना दुख झेलने के बाद भी मुझे ईश्वर पर पुरा विश्वास था कि वे कभी किसी को दुख नहीं दे सकते। ईश्वर के ऊपर मेरे इस अखंड विश्वास का कारण यह है कि मैं अपने कुदरती स्वभाव से ही धार्मिक आध्यात्मिक स्वभाव का व्यक्ति हूं। जीवन के हर कठिन मोड़ पर ईश्वरीय शक्ति ने मुझे सहारा दिया है। मुझे हर पल अपने अंदर ईश्वर के होने का एहसास होता रहा है। लेकिन आप यह मत समझना कि मेरे विचार ईश्वर पर मेरी आस्था से अभिप्रेरित है। मैंने खुद के ऊपर काफी प्रयोग भी किए हैं। इसके साथ-साथ मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर काफी रिसर्च भी किए हैं और काफी रिसर्च करने के बाद अब मुझे समझ में आ गया है कि हमारे दुख के लिए भाग्य या ईश्वर जिम्मेदार नहीं है। हम खुद ही अपने लिए सुख या दुख चुनते हैं। हमारे दुख का एकमात्र कारण है हमारे स्वभाव और प्रकृति के नियमों के साथ संतुलन ना होना।
हमारे धर्म ग्रंथों में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को मनुष्य के दुःख का मुल कारण बताया गया है और मनुष्य को इन पांचों विकारों से छुटकारा पाने की बात भी कही गई है। लेकिन मैं इनसे छुटकारा पाने की बात नहीं करूंगा क्योंकि मुझे पता हैं कि आज के समय में इन पांचों विकारों से परे होना किसी भी मनुष्य के लिए लगभग असम्भव बात है। इसलिए आज मैं बात करूंगा हमारे जीवन और प्रकृति के बीच संतुलन की। परंतु सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि काम क्रोध और लोभ मोह और अहंकार हमारे दुख के निर्माण में किस प्रकार अपनी भूमिका निभाते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये संपुर्ण जगत प्राकृति के अधीन है और इस जगत के सभी प्राणियों को प्राकृति के नियमों के अनुसार चलना पड़ता है। लेकिन हम इस पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान प्राणी मनुष्य इतने मुर्ख है कि हम प्राकृति के विपरीत चलना चाहते हैं। हम जानते हैं परिवर्तन संसार का नियम है, कभी दिन कभी रात कभी सर्दी कभी गर्मी, कभी धूप कभी छांव, कभी दुख कभी सुख यह सब सृष्टि के जीवन चक्र का एक हिस्सा है। फिर भी हम चाहते हैं कि जीवन में सब-कुछ हमारे अनूकूल हो।
हम जानते हैं हम जैसा बीज बोते हैं वैसा ही फल हमें मिलता है। फिर भी हम चाहते हैं कि हम बीज बोएं बबूल का और उसमें से आम निकल जाए। हमारे अधिकांश कर्म तो प्रकृति के विपरीत होते हैं लेकिन हम चाहते हैं कि परिणाम प्रकृति के अनुकूल हो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, संसार के हितार्थ के लिए निस्वार्थ भाव से कर्म करो और फल की चिंता मत करो लेकिन हमें कर्म से ज्यादा फल की चिंता होती है। और जब हमारी कामनाएं पूरी नहीं होती तो हम या तो क्रोधित हो जाते हैं या दुखी हो जाते हैं। क्रोध में हमारे बुद्धि और विवेक को हर लेती है। जिससे हमारे सोचने व समझने की क्षमता क्षीण हो जाती है और हम मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते हैं। तत्पश्चात एक विक्षिप्त मानसिकता वाला मनुष्य मन,कर्म और वचन से जो भी करता है वह उसके दुख को और भी ज्यादा बढ़ाने वाला होता है। अब आप खुद सोचिए कि हमारे दुःखी होने के लिए कौन दोषी है
हालांकि ऐसी बात भी नहीं है कि हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होती। हमारी कई ईच्छाएं पुरी भी होती है लेकिन जब हमारी इच्छाएं पूरी हो जाती है तो हमारा लोभ और बढ़ जाता है। जो आगे चलकर मोह का रूप ले लेता है। मोह का वास्तविक अर्थ होता है भ्रम। यानी हमें ये भ्रम हो जाता है कि हम किसी चीज के मालिक हैं। मोहवश हम संसार के भौतिक चीजों से अपना अस्तित्व जोड़ लेते हैं। जबकि गीता में भी कहा गया है कि परिवर्तन संसार का नियम है जो आज तुम्हारा है वह कल किसी और का था और परसों किसी और का हो जाएगा लेकिन हम चाहते हैं कि हम जो चाहे वह हमेशा के लिए हमारी हो जाए। और जब ऐसा नहीं होता तो हम दुखी हो जाते हैं।
भ्रम से याद आया कि हमारा सबसे बड़ा भ्रम तो हमारा अहंकार है। जो आजकल हमारे दुखों का सबसे बड़ा कारण बन गया है। अहंकार में हम अपने अस्तित्व को सृष्टि के मूल प्रकृति से तोड़ लेते है। हम स्वयं को सबसे अलग और सबसे बड़ा समझने लगते हैं लेकिन जब हमारा भ्रम टुटता है तब हमें पता चलता है कि हमारी औकात दुनिया में एक तिनके से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इसलिए इस भ्रम के टुटने से हमारे अहंकार को चोट लगती है। और हमें दुःख का अनुभव होता है। स्मरण रहें कि प्रकृति के नियमों के अनुसार संसार की हर चीज पंचतत्वों अर्थात पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से मिलकर बना है और एक दिन उसी में विलीन हो जाएगा। अतः इस भौतिक जगत के नश्वर चीजों पर अधिपत्य जमाने वाला हमारा अहंकार हमें केवल दुख ही दे सकता है।
इस प्रकार दोनों ही परिस्थितियों में हम अपने लिए केवल दुख ही पैदा करते हैं। हांलांकि यह दुख भी कोई स्थायी दुख नहीं होता यह मात्र एक नकारात्मक विचार होता है, जिसे हम चाहे तो सकारात्मक विचार में बदल सकते हैं। परंतु हम दुख के असली कारण को समझने के बजाय यहां भी एक भ्रम पाल लेते हैं कि यह दुःख मेरा है। इसलिए फिर हम दुःख को पकड़ कर बैठ जाते हैं और दुख हमारा स्वभाव बन जाता है।
तो अब सवाल यह उठता है कि हम इस दुख के भंवर से बाहर कैसे निकल सकते हैं। तो बस एक-दो दिन इंतजार कीजिए हम अगले पोस्ट में आपको एक-एक करके पूरे विस्तार से बताएंगे कि आप अपने दुख से छुटकारा कैसे पा सकते हैं।
दोस्तों आशा करता हूं कि आप समझ गए होंगे कि आप दुखी क्यों होते हैं और आपके दुख का असली कारण क्या है परंतु फिर भी यदि आपके मन में कोई प्रश्न है तो नीचे कमेंट करके हमें जरूर बताएं हम उसका भी उत्तर देने की पूरी कोशिश करेंगे। और यदि आप हमारे साथ जुड़ना चाहते हैं तो हमें Facebook और Instagram पर भी फॉलो करें। आप हमारे YouTube channel पर जाकर हमारा motivational video भी देख सकते हैं।