मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार का यह सच जानकर आप हैरान रह जाएंगे

Life after death

antim sanskar

हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार करने की परंपरा है। परंतु अंतिम संस्कार के नाम पर ऐसे बहुत से कर्मकांड और पूजा-पाठ किए जाते है। आईए, जरा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं कि मृत्यु के बाद होने वाले कर्म काण्ड ज़रूरी है या केवल एक पाखंड मात्र है।

मृत्यु के बाद कर्म कांड

मृत्यु इस जीवन का सबसे बड़ा सत्य है। जिसका जन्म हुआ है उसे एक ना दिन मरना ही है। मनुष्य के मरते ही उसके जीवन की पूरी कहानी समाप्त हो जाता है। सांस टुटते के साथ ही संसार से उसका संबंध भी टुट जाता है। परंतु दुनिया के विभिन्न धर्मों के लोग मृत्यु के बाद भी जीवन की कल्पना करते हैं। हिंदू समाज में मान्यता है कि मरने के बाद जीवात्मा की यात्रा जारी रहती हैं। इसी मान्यता के आधार पर हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार करने की परंपरा है। परंतु अंतिम संस्कार के नाम पर ऐसे बहुत से कर्मकांड और पूजा-पाठ किए जाते है। जो हमारे लिए काफी परेशानी का सबब बन जाते हैं। और हमें लगता है कि ये अंधविश्वास और पाखंड के सिवा कुछ भी नहीं है तो दोस्तों आज हम इसी टापिक पर बात करेंगे कि मृत्यु के बाद होने वाला कर्म काण्ड ज़रूरी है या केवल एक पाखंड मात्र है। परंतु उससे पहले हम बता देना चाहते हैं कि हम आपकी आस्था और धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते। हम तो बस इससे जुड़े कुछ तार्किक और महत्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डालना चाहते हैं। ताकि धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड को सामने लाया जा सकें।

हिंदू धर्म में शव को जलाने की परंपरा

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हमारे हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद शव को जलाने की परंपरा है। इसके पीछे भी एक काल्पनिक अवधारणा है। हिंदू समाज में ऐसी मान्यता है कि जिन लोगों की इच्छाएं जीवन में अधूरी रह जाती हैं। उनकी आत्माओं का मृत्यु के बाद भी अपने शरीर से मोह खत्म नहीं होता। ऐसी आत्माएं अपनी अधूरी इच्छाओं की पुर्ति के लिए वापस अपने शरीर को पाने का प्रयास करती हैं। इसलिए हिन्दू धर्म में शव को जला दिया जाता है ताकि ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी। आपने राज,1920 जैसी बालीवुड की हाॅरर फिल्मों में इसी अवधारणा को दर्शाया गया है। लेकिन इस परंपरा के आगे इस बात पर कभी किसी ने विचार नहीं किया कि शव को जलाने के दौरान काफी मात्रा में वायु प्रदूषण होता है और मृत शरीर में मौजूद खरबों बैक्टीरिया वातावरण में फैल जाते हैं। जो हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदेह हो सकते हैं। हमारे देश में हर साल करीब 85 लाख लोग मरते हैं। जिसमें से लगभग 50 लाख शवों को जलाया जाता है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि इससे हमारे पर्यावरण और हमारे स्वास्थ्य को कितनी नुकसान होता है। शव को जलाने के लिए काफी मात्रा में लकड़ी की भी जरूरत होती है। आजकल के महंगाई के दौर में गरीबों के लिए काफी महंगा विकल्प है। यदि हमारे धर्म गुरु चाहे तो इस परंपरा के अन्य विकल्पों पर भी विचार कर सकते हैं। परंतु मुझे पता है कि वे ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि धर्म के आगे पर्यावरण और मानवीय हितों का कोई महत्व नहीं है। और चूंकि यह धर्म का मामला है इसलिए कोई इसके बारे में बात करने की साहस नहीं जुटा पाता।

शव के अंतिम संस्कार के पहले भोजन ग्रहण क्यों नहीं करना चाहिए?

हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जब तक मृतक का दाह संस्कार ना हो जाए तब तक चूल्हा नहीं जलाना चाहिए अथवा खानदान के किसी भी व्यक्ति को भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह बात हमे तर्क संगत और उचित नहीं लगती क्योंकि कई बार किसी कारणवश शव जलाने में दो तीन दिन का समय लग जाता हैं। और इतने समय तक भुखे रहने से लोगों का हालत खराब हो जाती है। हमने कई बार देखा है कि लोग भुख और कमजोरी वजह से काफी परेशान और व्यथित हो जाते है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है। हमने देखा है कि भुख और कमजोरी से लोगों की तबीयत खराब हो जाती है और कई बार हास्पिटल भी जाना पड़ जाता है।

देखिए हम जानते हैं कि जब कोई अपना हमारा साथ छोड़कर चला जाता है तो दुःख और शोक का अनुभव होना स्वाभाविक है। ऐसे में किसी का भी खाने-पीने को दिल नहीं करता।और अधिकांश लोग खाते भी नहीं है। परंतु इसे एक परंपरा बना लेना सही नहीं है। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि यह शरीर नश्वर है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होना भी निश्चित हैं। परंतु जो नष्ट हो गया उसके लिए अपने शरीर को हानि पहुंचाना, अपने शरीर को कष्ट देना कहीं से भी उचित नहीं है। परंतु अज्ञान और नासमझी की वजह से यह परंपरा चली आ रही है। श्मशान में मृत शरीर का दाह संस्कार करते समय भी कई प्रकार के कर्मकाण्ड किए जाते हैं। परंतु यहां हम उन पर सवाल उठाना जरूरी नहीं समझते क्योंकि उससे किसी को कोई खास परेशानी नहीं होती। बात करते हैं उन विशेष प्रक्रियाओं की जिन्हें पूरा करते समय लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।

मृत्यु सूतक में वर्जित कार्य

हिंदू धर्म के अनुसार मृतक के समस्त परिजन तेरह दिनों के लिए अछूत हो जाते है। उनके पूरे खानदान लिए सूतक का नियम लागू हो जाता है। इस दौरान खानदान का कोई भी सदस्य किसी भी शुभ कार्य, पूजा पाठ, समाजिक समारोह या पर्व त्यौहार में हिस्सा नहीं ले सकते। वे कोई नया काम शुरू नहीं कर सकते हैं। वे नये कपड़े नहीं पहन सकते और ना ही वे कहीं यात्रा कर‌ सकते हैं। सबसे ज्यादा परेशानी तो स्त्रीयों को होती है। परंपरा के अनुसार वे सात दिनों तक स्नान नहीं कर सकती। बालों में तेल नहीं लगा सकती और ही वह उन्हें सँवार सकती है। सातवें दिन सारे खानदान की स्त्रियां गांव के बाहर तलाब में नहाती हैं। हमारे गांवों में इसे सरधन कहा जाता है। सरधन नहाने के दौरान अक्सर स्त्रियों और बच्चों के तलाब में डूब कर मरने की घटनाएं भी सामने आती रहती हैं।

अब आप खुद सोचिए कि यह परंपरा कितनी मुर्खतापूर्ण है। गर्मियों में स्त्रियों को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता होता। सात दिनों तक उन्हें कितनी गंदगी और बदहाली में रहना पड़ता है। इससे इन पाखंडी पंडो और पुजारियों को को मतलब नहीं है। उन्हें तो केवल अपने दान दक्षिणा से मतलब होता है। सुना है कि ऐसा गरूड़ पुराण में लिखा है लेकिन हमने गरुड़ पुराण का भी अध्ययन किया है। परंतु गरूड़ पुराण में इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। कुछ लोग इसे वैज्ञानिक तथ्यों से भी जोड़ कर देखते हैं। बताया जाता है कि जिस परिवार में मृत्यु होती है। उस घर में बैक्टीरियल इंफेक्शन होने की आशंका होती है। इसलिए संभावित बिमारियों से बचने के लिए यह परंपरा सही है। लेकिन यहां हम एक सवाल पूछना चाहेंगे कि जब स्त्रियों को सात दिनों तक गंदगी में रहने को मजबूर किया जा रहा है तो क्या इस दौरान इंफेक्शन की आशंका नहीं है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दाह संस्कार के दिन ही पुरे घर और शरीर की सफाई कर ली जाए। शायद नहीं हो सकता क्योंकि हमारे शास्त्र इसकी इजाजत नहीं देते।

दाह संस्कार के बाद मुंडन

Mundan Sanskar

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गरूड़ पुराण के अनुसार मृत्यु के दसवें दिन मुंडन संस्कार की परंपरा है। जिसे दशगात्र भी कहा जाता है। इसमें पूरे खानदान के पुरूषों का सिर मुंडवाने की परंपरा है। हालांकि आज के आधुनिक युग में कोई भी युवा या बच्चा गंजा नहीं होना चाहता परंतु इस परंपरा को निभाने के लिए अथवा ये कहें कि बड़ों का मान रखने के लिए उसे अपने बालों की आहुति देनी ही पड़ती है। मुंडन संस्कार कराने के पीछे दो और कारण बताए जाते हैं, पहला यह कि मृत व्यक्ति के प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट करना। दूसरा यह कि जब पार्थिव शरीर को जलाया जाता है तो उसमें से कुछ हानीकारक जीवाणु हमारे सिर और बालों में चिपक जाते हैं। बालों में चिपके इन जीवाणुओं को पूरी तरह निकालने के लिए ही मुंडन कराया जाता है।इन तीनों कारणों के बारे में हम अपने विचार स्पष्ट करना चाहेंगे। सबसे पहले तो गरुण पुराण में केवल मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति के मुंडन संस्कार की बात लिखी गई हैं। पुरे खानदान के मुंडन की बात कहीं भी नहीं लिखी गई है। यही बात श्रद्धा और सम्मान की तो जब कोई अच्छा इंसान मरता है तो उसके लिए हर किसी के दिल में श्रद्धा और सम्मान रहता है। श्रद्धा और सम्मान दिल में होता है बालों में नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि कोई मुंडन करा ले परंतु उसके दिल में मरने वाले के लिए कोई श्रद्धा और सम्मान ही ना हो। इसलिए मुंडन कराने से श्रद्धा और सम्मान प्रकट नहीं हो जाता।हां यह बात थोड़ी तर्कसंगत लगती है कि मृत शरीर को जलाने के दौरान हानिकारक जीवाणु हमारे बालों में चिपक जाते होंगे। इसलिए जितने लोग दाह संस्कार में जाते हैं। उन्हें मुंडन करा लेना चाहिए है। परंतु यह काम तो उसी दिन हो जाना चाहिए। यह बात समझ से परे है कि जीवाणुओं को दस दिनों तक फैलने के लिए क्यों छोड़ा जाता है। हमें नहीं लगता कि कथित धर्म पंडितों इस सवाल का कोई उत्तर दे पायेंगे। क्योंकि उनके पास तो केवल एक ही उत्तर है। ऐसा गरूड़ पुराण में बताया गया है।

मृत्यु के बाद तेरहवीं
Mrutyu ke bad Terahwi

shraddh

मुंडन संस्कार के बाद श्राद्ध और मृत्यभोज कराईं जाती है। उसके बाद भी ये पंडे पुजारी पीछा नहीं छोड़ते। उसके बाद अस्थि विसर्जन और कई वर्षों तक पितृ पक्ष के नाम पर लोगों की मेहनत की कमाई लुटते रहते हैं। भले ही मृत्यु व्यक्ति को जीवन में सुख सुविधाएं और आदर सम्मान नसीब न हुई हों लेकिन मरने के बाद होने वाले कर्मकांडों में पैसा पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। जिसमें मृत्यु भोज, पिंडदान और न जाने कितने कर्म काण्ड होते है। कुछ मिलाकर मृतक के परिजनों की जेब ढ़ीली होती है और पंडे पुजारियों की जेब गरम होती है। जरा सोचिए कि एक गरीब व्यक्ति जिसके पास अपने मृत परिजन का समुचित इलाज कराने के पैसे भी नहीं थे। जिसके ऊपर पहले से ही लाखों रुपयों कर्ज है, जो बड़ी मुश्किल से अपने परिवार का खर्च चला रहा है। जिसके पास बेचने के लिए जमीन भी नहीं है। वह कैसे अपने परिजनों का अंतिम संस्कार करता होगा। लेकिन इन पंडे पुजारियों को किसी की मजबूरी में क्या मतलब है। इन्हें तो अपनी दक्षिणा से मतलब है। ये पाखंडी पंडित और पुरोहित धर्म और शास्त्रों की दुहाई देकर लोगों को बताते हैं कि अगर ये कर्मकांड नहीं करोगे तो मरने वाले की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। तुम्हारे पितरों को मुक्ति नहीं मिलेगी। इस तरह स्वर्ग और नरक का भय दिखा कर वे मृतक के परिजनों से कर्मकांड के नाम पर हजारों रूपए ठग लेते हैं। इसलिए हमें समझना होगा कि परम्परा के नाम पर ये सब पाखंड करके हम केवल पंडे पुजारियों को अमीर बना सकते हैं इससे हमारा या हमारे पितरों का किसी का कोई भला नहीं होगा।

मृत्यु के बाद जीवन की वास्तविकता क्या है?

देखिए यदि विज्ञान दृष्टिकोण से देखें तो सृष्टि मनुष्य का भौतिक शरीर प्रकृति के पांच तत्वों पृथ्वी अग्नि जल वायु और आकाश से मिलकर निर्मित होता है। और इनके भीतर जो चेतना है वह इन्हीं पांचों तत्वों की उर्जा का संयोजन है। जब किसी वजह से इन पांचों तत्व की ओर जाता है संयोजन टूट जाता है तो मनुष्य की चेतना लुप्त हो जाती है। इसके बाद जब शरीर को नष्ट कर दिया जाता है तो ये पांचों तत्व पुनः प्राकृति में समाहित हो जाते है। शरीर के नष्ट होते ही उर्जा के तीनो रूप न्यूट्रॉन प्रोटोन और इलेक्ट्रॉन कोई दूसरा आकार धारण कर लेते है। प्राकृति की यह प्रक्रिया युगों-युगों से चली आ रही है और अनंत काल तक चलती रहेगी। धर्मों ने शायद इसे ही को पुनर्जन्म अथवा परलोक गमन का नाम दे दिया है। हां स्वर्ग और नरक भी है परन्तु यह सब इसी धरती पर है और हम जो अच्छा या बुरा कर्म करते हैं उसका फल आपको यही पर मिल जाता है। हमें यहीं पर स्वर्ग का सुख भी मिलता है और नरक का दुःख भी मिलता है। अगर आप अपने अंदर थोड़ी सी भी जागरूकता और अंतर ज्ञान विकसित करें तो यह बात आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं।

श्राद्ध कर्म के बारे में भगवद्गीता और वेदों में क्या लिखा हैं?

स्वर्ग नरक और पुनर्जन्म के बारे में जितनी भी मान्यताएं हैं। वह सब गरुण पुराण पर आधारित है परंतु यहां एक बात समझ में नहीं आ रही है कि एक तरफ गरूड़ पुराण में बताया जा रहा है कि मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार जैसे श्राद्ध मुंडन, तर्पण और पिंडदान इत्यादि करने से मृत आत्मा को मुक्ति मिलती है। परंतु दुसरी तरफ गीता में बताया जा रहा है कि श्राद्ध कर्म करना सही नहीं है। वेदों में तो श्राद्ध कर्म और पिंडदान इत्यादि को मुर्खो की साधना कहा गया है। अब आप खुद सोच सकते हैं कि जब हमारे शास्त्रों में ही एक दूसरे के विरुद्ध बातें लिखी गई हैं तो इन पर कैसे भरोसा किया जा सकता है। इस विषय में वैज्ञानिक तथ्य ज्यादा पर विश्वसनीय क्योंकि वैज्ञानिक तथ्य तार्किक रूप से ज्यादा स्पष्ट और प्रमाणिक है। हमारे खुद के अनुभव और आंतरिक समझ भी विज्ञान की बातों से मेल खाते हैं। परंतु धर्म के ठेकेदारों ने हमें ऐसा ब्रेनवाश किया है हमारे अंदर विवेक और तर्कशक्ति भी नहीं रही। हमारे हिंदू समाज की आंखों पर धर्म का इतना मोटा चश्मा लगा हुआ है कि उन्हें धर्म के आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता। और जब तक हम धर्म का ये चश्मा उतार कर नहीं देखेंगे। तब तक धर्म के ठेकेदार हमें ऐसे ही बेवकूफ बना कर लुटते रहेंगे।

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